hindisamay head


अ+ अ-

कविता

पन कह पाना कठिन है भीड़ू

मोहन सगोरिया


 

लोग नींद में लग रहे थे जागते हुए
पर जागने जैसा कोई भाव नहीं था चेहरे पर
और उपक्रम भी नहीं ऐसा कि कहें उन्हें जागा हुआ

लाश नींद में थी जागती-सी लगी जो
आँखें खुलीं - एकटक देखतीं, मुँह भी खुला
जैसे कहने को कुछ अभीच्च के अभीच्च

उसकी बेबाकी से भीड़ खल्लास हुई समझो
खामोश थी सड़क ज्यों आवाज खो गई हो

थोड़ा नजीक पड़ेला था नौ इंच का चाकू चमचमाता
नौ इंच के चाकू का घाव नौ इंच का नइ था
कि चाकू उतना नइ करता घाव जित्ता इस्तेमाल किया हो
चाकू बापरना नीयत और जरूरत बयान करता है

इसलिए बहोत कठिन है घाव की गहराई नापना
ये भी उतनाइच्च कठिन जानना कि किस-किस पे बना घाव

सच बोले तो लाश के घर-परिवार पे भी घाव हुआ ना
पन लोग बोलेंगा कि लाश का घर-परिवार नइ होता
लाश सिर्फ लाश है और कुछ नइ, तभीच्च तो
बयान कर देती है कि अभीच्च-अभीच्च कत्ल हुआ यहाँ

सब जन जानता है सब कुछ देखा-अदेखा
पन कह पाना कठिन है भीड़ू साफ-साफ थाने में
लाश के लिए मुश्किल नहीं कुछ यहाँ न वहाँ
कि लाश जैसे सोती है वैसे ही जागती है।


End Text   End Text    End Text

हिंदी समय में मोहन सगोरिया की रचनाएँ